Wednesday, 16 December 2015

vayveey siddhi

वायवीय सिद्धि
himalayan yogis

खाली जगह या आकाश या शून्य में से किसी भी वास्तु को प्राप्त करने की क्रिया को  वायवीय या शून्य सिद्धि कहते है शून्य में से पदार्थ प्राप्त करना भारतीय योगियों के लिए कोई कठिन  क्रिया नहीं रही मगर इस सिद्धि के जानकर बहुत ही कम  लोग है ऐसे ही योगियों में त्रिजटा अघोरी, अजानानंदजी भूर्भुआबाबा 
 भी अनेक योगी इस वायवीय सिद्धि के अच्छे जानकर है इसी कड़ी में हरिओम बाबाऔर स्वामी निखिलेस्वरानन्दजी को भी वायवीयसिद्धि में महारत हासिल थी  जंगलो में जब साधना रत रहते थे तब सोचिये कहा से अपना सामान लाते  होगे   क्योकि ये जंगल  शहर से काफी दूरी पर होते है इस प्रकार के जंगलो से वे अपनी आवश्यकता की वस्तु  को अगर शहर से लाये तो पूरा दिन इसी कार्य में निकल जायेगा  इसलिए ही ये साधू संत वायवीय सिद्धियों का उपयोग करते  हुए वही बैठे बैठे अपना कोई भी सामान शून्य में से प्राप्त कर लेते है   सामानो   में भोजन ,शीतल जल वस्त्र धन -धान्य  और जो भी मन में इच्छा हो उसी चीज को  सेकिन्डो में प्राप्त कर लेते है इनमे कुछ पदार्थ तो ऐसे है जिन्हे हम आप भी प्राप्त नहीं कर सकते  जैसे जाड़े  के मौसम में आम खाने की इच्छा होने पर भी आम नहीं खा सकते क्योकि जाड़े में पेड़ो पर आम नहीं लगते  इसलिए हमें आम प्राप्त नहीं  होगे मगर इन योगिया के साथ ऐसा नहीं है ये जब भी चाहे वायवीय  सिद्धि के माध्यम से बे मौसम के भी आम या कोई भी चीज प्राप्त कर सकते है 
एक बार की बात है की स्वामी निखिलेस्वरानंदजी अपने सन्यास की शुरूआती दिनों में  घने जंगलो में एक योगिराज जी से साधना सीखने गए उन योगिराज जी के पास में एक शेर  हर समय उनकी रक्षा में रहता था अतः उनसे मिलने की कोई भी हिम्मत  नहीं रखता था स्वामी निखिलेस्वरानंदजी को भी लोगो ने रोक कि  वह मत जाओ क्योकि वहा  खूखार शेर रहता है और वहा  जो भी जाता है उसे खा जाता है निखिलेस्वरानंदजी कुछ परेशान हुए फिर उन्होंने सोचा की बिना खतरा उठाये तो कुछ भी प्राप्त नहीं होगा और इस संकल्प साधना को  सि खाने वाला और कोई भी योगी नहीं है स्वामीजी जब शेर वाले महाराजजी की कुतिया के पास  पहुंचे तब एक पेड़ पर चढ़कर वही से आवाज लगाने लगे तभी आवाज़ सुनकर  वह शेर तेज़ी से निखिलेस्वरानन्द जी की तरफ दौड़ा मगर पेड़ पर  नहीं चढ़ सका  उस समय वह योगी जी भी उस कुटिया में  नहीं थे इस बीच  तीन दिन -रात इसी तरह निकल गए शेर नीचे ही बैठा रहा बड़ी परेशानी थी 
अब निखिलेस्वरानंदजी ने अपनी कुछ सिद्धियो का सहारा लेने की सोची क्योकि योगी लोग बिना प्राण संकट के अपनी सिद्धियों का प्रयोग नहीं करते और  तब स्वामी जी ने मुख बंधनऔर शरीर बंधन प्रयोग किया अब शेर का सारा  शरीर और मुँह बांध चुका  था तब कही जाकर निखिलेस्वरानंदजी नीचे उतरे  और उन योगिराज की कुटिआ तक पहुंचे योगिराज सामने बैठे मुस्करा रहे थे और मन ही मन समझ चुके थे कि निखिलेस्वरानंदजी उच्चकोटि की साधनाओ में पारंगगत है योगीराज ने निखिलजी से कहा कि तुम परीक्षा  में पूर्ण उत्तीर्ण हुए  हो बोलो तुम मुझसे क्या सीखना चाहते हो तब निखिलजी ने वायवीय विद्या  सीखने की इच्छा प्रकट की योगिराजजी ने  वहा रहने की अनुमति दे दी 
और इस विद्या को पूर्ण रूप से सिखादिया उस समय सर्दी का मौसम था  योगी
जी ने पूछा कि क्या खाओगे तब निखिलजी के मुख से निकला आम योगीजी ने   हवा में हाथ लहराकर संकल्प किया तुरंत हाथ में दो सुन्दर आम आ गए जिन्हे निखिलजी खाया  और खाने के बाद कहा कि इतने रसीले आम मैंने कभी नहीं खाए  उस आश्रम से वापिस आते समय योगीजी और निखिलेस्वरानंदजी आपस  में मिलकर खूब रोये विदा होते समय योगीजी निखिलजी से इतना प्रेम करने लगे थे कि उन्होंने कहा कि मरते समय तुम मेरे ही पास रहना मैंने तुम्हारे जैसा शिष्य  नहीं देखा जिसने अपनी जान जोखिम में डाल के मुझ तक पहुंच ही गया  तब तक वह शेर भी निकिलेस्वरानन्दजी से काफी हिल मिल गया था वह निखिलजी  के चरणो में लिपट गया और रास्ता रोककर खड़ा हो गया क्योकि निखिलजी भी साधना के दिनों में उसका बहुत ख्याल रखते थे और हर समय उसके खाने के लिए नयी नयी चीजे देते रहते थे और इस प्रकार दुखी मन से वह से विदा हुए  बाद में योगिराज की मृत्यु होने के कुछ समय पूर्व उस आश्रम में दुबारा से  आये और योगिराज जी की सेवा की निखिलेस्वरानंदजी के ही सामने उनकी मृत्यु  हुई  से पाठक समझ सकते है कि अगर किसी योगी ,यति सन्यासी पर ये सिद्धि है तो उसे हर प्रकार की वास्तु हर समय उपलब्ध रहती है आज ये साधना गिने -चुने लोगो तक ही सीमित रह गयी है यह हम सब भारत वासियो का  सौभाग्य है कि हम ऐसे योगियों के देश में रहते है योगियों के मन में कोई ऊच  -नंच का भाव नहीं होता वे तो सिर्फ शिष्य की पात्रता देखते है  हा इस सब में  वे शिष्य की पहले ही कठोर परीक्षा अवश्य लेते है जिसजे कि शिष्य इस सिद्धी  का कोई गलत इस्तेमाल न करे वस्तुतः वायवीय सिद्धि एक आश्चर्य जनक  सिद्धि है 

Sunday, 13 December 2015

Air Fly in sky



आकाश विचरण क्रिया 
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 हमारे देश में वायु गमन प्रक्रिया कोई नयी बात नहीं है हनुमानजी ,रावण इस क्रिया में महारत प्राप्त थे कालान्तर में यह विद्या लुप्त हो गयी थी  मगर भारतवर्ष  के योगियों ने इस विद्या  को  दुबारा  से खोज निकाला आज  के परिपेछ्य  में योगिराज अचुत्यानन्दजी महाराज; योगी      विरिज।नंदजी ,
स्वामी परम पूज्य श्री निखिलेस्वरानंदजी ,तेलग  बाबा इस विद्या के सिद्ध आचार्य है इसी  कड़ी में  योगिराज अभ्यानन्दजी  का  नाम  भी शामिल है इससे इन योगियों ने यह सिद्ध कर दिया है की यह विद्या दुबारा से पुनर्जीवि
 त हुई है इसको   पुनर्जीवितकरने में निश्चयही  स्वामी निखिलेस्वरानंदजी का बहुत बड़ा योगदान है क्योकि भारतवर्ष में ये विद्यालगभग लुप्त प्राय हो गयी थी तभी निखिलेस्वरानंदजी ने अपने सन्यस्त जीवन में कई साधको को इस विद्या को सिखाया और इसका प्रचार -प्रसार किया तब कही जाकर इसे  नव जीवन  प्राप्त  हुआ  इसी  कड़ी  में  भूरभुवा  बाबा , त्रिजटा अघोरी    अज।नानंदजी   इन्ही  के एक  शिष्य  सदानंद  इसके  आलावा सिद्धाश्रम को  अनेक साधको ने  साधना  द्वारा  वायु  गमन क्रिया को पूर्णता के साथ सीखा | 
उपरोक्त सभी  साधको  ने  इस क्रिया को तपस्या  से  प्राप्त किया था मगर पहली बार स्वामी अचुत्यानन्दजी जी ने इसी क्रिया को बिनाकिसी मन्त्र 
साधना  के  केवल  आसान   और  योगासन  के द्वारा  करके  दिखा दिया 
कि वायु गमन क्रिया को नवीन  तरीके से भी संपन्न किया  जा सकता है 
उन्होंने बताया कि नाभि  के  चारो ओर  छोटी छोटी ग्रन्थियां होती है उन ग्रन्थियांका एकीकरण नाभि के ठीक नीचे होताहै जिसे सामान्य भाषा में गोली या पेचुटी   कहते  है  नाभि  के चारो  ओर प्राण वायु होती है अर्थात 
ऑक्सीजन  भरी  होती है जिससे  मानव  उसके  सहारे  जीवित  रहता है योगिराज अचुत्यानन्दजी   ने पद्मासन लगाकर सीधे बैठकर नाभि के नीचे जो छोटा सा  गोला था उसे  घूम।ना शुरू  किया तो उसके घर्षण से वायु गरम होना शुरू हो गयी और ऊपर से योगिराज ने जालंदर बंद्ध लगा लिया 
फल स्वरुप  प्राण  वायु  गरम  होकर ब।हार नहीं निकल पाई   परिणाम स्वरुप शरीर हवा में  ऊपर की ओर  उठ गया इस प्रकार पहली बार केवल योगिक क्रिया के माध्यम से ऊपर उठकर सबको आश्चर्य चकित कर दिया 
आज योगियों ने जो नयी पद्धति विकसित की है इसमें किसी भी प्रकार के तंत्र  मन्त्र का सहारा नहीं लिया गया है अपितु केवक योग क्रिया द्वारा  ही 
यह सफलता  प्राप्त  की है यह क्रिया अत्यंत ही सामान्य है इसमें जिसको नेती धोती वस्ति क्रिया आदि का ज्ञान है वह  इस क्रिया को  अचुत्यानन्द 
जी से सीख सकता है 
 तांत्रिक विधी 
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 वायु  गमन  प्रिक्रिया   सर्व  विदित  तांत्रिक  क्रिया है और मूलरूप से यह रासायनिक क्रिया से सम्बंधित है इसमें पारद के बारह संस्कार संपन्न कर 
 बुभुक्षित किया जाता है फिर पारद को रजत ग्रास दिया जाता है ऐसा पारद जब रजत ग्रास लेने लग जाये तब उस पारद की गुटिका बनाई जाती है तब उस   गुटिका  को  स्वर्ण  अग्नि  संस्कार  से  संस्कारित   किया   जाता है इसमें गोली अत्यंत सफलता  दिलाने वाली  होती  है  इस गोली को मुह में  रखते  ही  व्यक्ति  के  भूमी  तत्व का लोप हो जाता है क्योकि ये गीली व्यक्तिके भूमी तत्व को समाप्त कर देती है   इसके परिणाम  स्वरुप व्यक्ति ऑक्सीजन से भी  हल्का होकर हवा में  उठकर वायु गमन कर सकने  में समर्थ हो जाता है इसतरह की क्रियामें व्यक्तिकोअपने ऊपर पूरा नियंत्रण रहता  है  और  मुह  में  ही  गोली को दाए या बाए घुमाने  पर  ऊपर नीचे विचरण  करते  हुए  हजारो  फ़ीट  की  उचाई पर बिना किसी उपकरण के घूमता फिरता रहता है वह जब चाहे  जहा चाहे सेकड़ो मील की यात्रा कुछ ही मिंटो में संपन्न कर मनोवांछितजगह पर पहुंच सकता है संसार केश्रेष्ठ तांत्रिको  और  योगियों  ने इस क्रिया को  अपनाकर यात्राये संपन्न की है कुछ  योगी  तो इस  क्रिया  को इतनी  तेज़ी  के साथ  संपन्न करते है किपलक झपकते ही सेकड़ो   मील की यात्रा पूर्ण हो जाती है पाठक समझ सकते है कि आज के युग में ये साधना  कितनी महत्वपूर्ण है जब आज के समय मेंमानव कार ,रेल गाड़ीमें कितना समय व्यतीत करके भीड़भाड़ में बड़ी ही परेशानी  से  यात्रा  संपन्न  करते है   जबकि आज विज्ञान अपने आपको बहुत  आगे  समझ रहा है मगर वह वास्तव में अभी हमारे ऋषि -मुनियो के ज्ञान से बहुत पीछे है 
आज से  वर्षो पूर्व विशुद्धानन्द जी काशी में रहते थे और वास्तव में अत्यंत उच्चकोटि के ऋषि थे उन्होंने यही क्रिया अपने आश्रम में उड़कर शिष्यों को  दिखा  दी फिर क्या था जो भी  शिष्य  आश्रम  में  आता वही स्वामीजी से उड़कर  दिख।ने की कहता स्वामीजी  यह सब  करते इतना तंग आ गए कि वह मन ही मन  पछताने लगे  कि  मैंने  कितनी बड़ी  भूल कर दी जो इन्हे उड़कर  दिखा  दिया  इसीलिए   बाद  में  सन्यासियो ,योगिओ  और  सभी जानकारों ने इस विद्याको  दिखाना बंद कर दिया लेकिन हिमालय में तेलग बाबा  आज  भी  प्रसन्न  मुंद्रा में होने पर किसी अपने भक्त के अनुरोध पर उसे  उड़कर  दिखा देते है  वस्तुतः कहने  का  अर्थ  है  कि ये सब बाते मात्र कपोल -कल्पित नहीं है  इनमे  आज  भी  पूर्ण  सच्चाई है हम लोग घर से बहार निकलते नहीं है  औरजो कुछ पत्र - पत्रिकाओ से पढ़ने को मिलता है उसी  को  सत्य  मान  लेते  है  यह हमारे  समाज  की  कमजोरी है कि जब महापुरुष  हमारे  बीच  होते  है  तब हम उन्हें  पहचान  नहीं  पाते क्योकि जीवित रहते हुए ही इनमहापुरुषों  से कुछ सीखा जा सकता है हा आज के समय में यह कठिन अवश्य  है कि  ऐसे  महापुरुषों को कैसे पहचाने इसके लिए  हमे  खोज  करनी  होगी   इतनी आसानी से कुछ नहीं मिलता मगर बराबर  खोजने  पर  इस  प्रकृति  द्वारा  सब  कुछ  मिल  जाता  है क्योकि महापुरुष तो हर समय इस प्रकृति  पर आतेही रहते है अभी कुछ वर्षो पूर्व जहा तक मुझे याद पड़ता है शायद  सन 1998 तक श्रीमालीजी जिन्हे हम निखिलेस्वरानंदजी  के  नाम  से जानते  है ,हमारे बीच उपस्थित थे बहुत सारे शिष्य  उनसे  जुड़े  और  उनके साथ  रहकर इस वायु गमन क्रिया में सिद्धता प्राप्त की | कल  फिर  पाठको  के  लिए नया  विषय लेकर आउगा । 

आपका प्रिय मित्र -हरीकान्त  शर्मा 

Saturday, 12 December 2015

trikaldarshi kaise bane

Mount Shivling, Shivling (Garhwal Himalaya)

त्रिकालदर्शी कैसे बने 
हमारे पूर्वज त्रिकालदर्शी थे और वह एक स्थान पर बैठे -बैठे ही संसार की 
किसी भी घटना को देख लेते थे बात यही रूकती वह इतने समर्थ थे  कि 
पीछे सौ  साल की घटित घटनाओको भी देख सकने में व आगे सौ सालो 
में आने वाली घटनाओको भी देख सकने में समर्थ थे इसका यही मतलब 
निकाला जा सकता हैपूर्वजन्म की घटनाओ के कारण हमाराभाग्य निश्चि-
त हो जाता है और आगे की घटनाए भी पहले  से  ही निश्चित हो जाती है 
तभी तो हमें   आगे  की घटनाए  देख  पाने  में समर्थ हो पाते है इसीलिए 
ब्रह्मंण में पहले से ही बीता  हुआ समय और आने वाला समय अंकित  हो 
जाता है  आवश्यकता इस बात बात  की है कि  हम  कैसे  उन  क्षणो  को  
पकड़ने की क्रिया सीखे  क्रिया को  सीखने  लिए हमारे पास सबसे प्रवल 
क्रिया मन ही है  जिसके माध्यम  से हम भूत  भविष्य  साफ -साफ  देख 
सकते है । 
इस क्रिया को सीखने के लिए साधक को सबसे पहले त्राटक का अभ्यास 
करना चाहिए तब उसे अपने मन को आज्ञा देनी चाहिए कि किसी व्यक्ति 
के जीवन में  घुसकर उसके जीवन की पिछली घटनाओ को  देखे इस  त-
 रह मन उसके  बीते  हुए समय चक्र में प्रवेश करता है और  जो  घटनाये 
बीत चुकी है वह सब कुछ सामने आ जाता है और वे घटनाये साफ -साफ 
दिखाई दे जाती है इसी को अतीत देखने की क्रिया कहते है उसी प्रकार से 
जब मन को आगे की घटनाये देखने के लिए आदेश  दिया  जाता  है तब 
मन उस क।ल खंड में प्रवेश  करके  आगे  की  घटनाओ  को भी देखने में 
समर्थ हो जाता है और उस व्यक्ति के जीवन की सभी  घटनाओको हू -बहू 
बयां कर देता है सामने वाला व्यक्ति यह सब सुनकर हत  प्रभ रहजाता है 
 व्यक्ति के जीवन की छोटी से छोटी घटना को भीअच्छी तरह सेबता देता 
है जो  घटनाये  अत्यंत गोपनीय होती है जिसके बारे  में  व्यक्ति ने  कभी 
किसी से शेयर नहीं किया होता वह घटना भी क्रियाद्वारा मन बता देता है 
 इसी क्रिया को भविष्य दर्शन  कहते  है इस प्रकार  यह  स्पस्ट है कि यह 
क्रिया अत्यंत ही महत्वपूर्ण है औरइस क्रिया को त्रिकालदर्शिता की संज्ञा 
दी जाती है यह क्रिया अपने अनाहत चक्र को भी जगाकर संपन्न की जा
सकती है  इसके लिए हमें अपनी कुण्डलिनी शक्ति को  जगाकर  अनाहत 
चक्र  तक पहुचना पड़ेगातब अनाहत चक्रको जाग्रत करमन पर नियंत्रण 
प्राप्त करे फिर समय को देखने का प्रयत्न करे जिसको अज्ञात  कहा जाता 
है ऐसी स्थिति प्राप्त होने पर व्यक्ति   त्रिकालदर्शी बन जाता है | 


Friday, 11 December 2015

himalay ke yogiraj

परम श्रेष्ठ योगिराज परमहंस स्वामी निखिलेस्वरानंदजी 
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हिमालय के क्षेत्र में स्वामी निखिलेस्वरानन्दजी का  नाम  बहुत  ही प्रसिद्ध हैं 
भारतवर्ष की लगभग सभी विद्याओ मे पारंगत थे जैसे मन्त्र ,तन्त्र ,शाबरतंत्र
और मन्त्र ,लामा साधनाए, वाममार्गी ,अघोरी साधनाए ,हठमार्ग इसके अला -
वा योग ,ज्योतिष ,सम्मोहन विज्ञान और भी बहुत सारी विद्याओ  मे  स्वामी 
जी पारंगगत थे इस सांसारिक जीवन मे लोग  उन्हें नारायणदत्त  श्रीमालीजी 
के नाम से जाने थे ज्योतिष पर उनकी इतनी पकड़ थी कि ज्योतिषयो  में ज-
ब कोई विवाद की स्थिति आती थी तब श्री मालीजी अपनी बात सबके  बीच 
रखते थे तब सभी ज्योतिषी उनकी बात एक स्वर मे स्वीकार करते थे स्वामी
जी ने सिर्फ ज्योतिष पर ही 156 किताबे लिखी है जो आज भी जन सामान्य 
मे बहुत ही प्रचलित है मेरा तो यह अनुभव है कि ज्योतिष के क्षेत्र में  स्वामी 
जी के ज्ञान की बराबरी आज के समय में कोई नहीं कर सकता  क्योकि  इस 
स्वामी जी को पंचागुली साधना पूर्णता  के  साथ  सिद्ध थी इसके बल से स्वा -
मीजी भविष्य की भी घटना साक्ष।त देखकर  फल कथन  करते  थे आज  के 
समय में बहुत ही कम योगियो के पास इस विद्या का  ज्ञान  बाकी  रह  गया 
है दूसरे रूप मे कहू तोइस यहविद्या लोप होने के कगार पर खड़ी है  स्वामीजी 
ने अपने जीवनमे बहुत सारीयोगविद्याओ को पुनर्जीवित किया जिनमे  प्राण 
संजीवनी,क्रिया,सम्मोहन के द्वारा लोकविचरण कला ,शक्तिपात क्रिया रावण 
कृत लक्ष्मीआबद्ध विद्या, सिद्धाश्रम गमन और आगम प्रयोग ,परकाया प्रवेश 
सूर्य विज्ञान इत्यादि  हिमालय मे  उच्चकोटि के योगी ,यति  सन्यसियो  में  
स्वामी निखिलेस्वरानंदजी को सर्व्वोच स्थान प्राप्त था  योगियों मे  प्रचलित 
था कि स्वामीजी समस्त सिद्धियो मे पारंगत है संसार  में  ऐसी  कोई  सिद्धी
नहीं थी जो उनके पास नहीं थी उनकी पवित्रता के  आगे  सिद्धी  तो  मामूली 
चीज थी सिद्धियाँ तो उनके सामने हाथ बांधे  खड़ी  रहती  थी  इसीलिए  तो 
वे हिमालय ही नहीं सिद्धाश्रम मे  भी  प्रसिद्द  थे एक बार सिद्धाश्रम में उनकी 
इतनी कठिन परीछा ली गयी तब उन्होंने  स्वयं  कहा  कि  अगर दस हजार 
सन्यासी मिलकर भी इस परीछा को दे तब भी  निश्चित  रूप  से इस परीछा 
मे उत्तीर्ण होना संभव नहीं है लेकिन फिर भी स्वामीजी नेउस परीछा को पूर्ण 
करके दिखा दिया कि उनकी क्षमता को आंकना उन उच्चकोटि  के  योगियों 
के लिये भी संभव नहीं हैं इस प्रकार उन्होंने  साबित  कर  दिया  कि  उनका 
मुकाबला करना व्यर्थ है और हिमालय मे  उनके जैसा कोई नहीं  है तभी तो 
हिमालय मे उस समय होड़ लगी  रहती थी  कि  स्वामीजी  का  शिष्य  कैसे 
बना जाय क्योकि उन दिनों स्वामीजी का शिष्य बनना बहुत मुश्किल कार्य 
ही नहींबिल्कुल नामुमकिन जैसा कार्यथा क्योकि स्वामीजी बहुत ही कठिन 
परीछा लेते थे और जो भी उनकी इस परीछा में पास हो जाता था वह शिष्य 
अपने भाग्य पर इठलाता था क्योकि वह जानता थाकि अब मुझे साधनाओ 
मे सफल होने  की  गारंटी मिल  गयी  है स्वामीजी के साथ रहना जीवन  के 
स्वर्णिम पलो मे से एक था वे  शिष्यों से बहुत ही प्रेम करते थे और  साधना 
पथपर आगे बढ़ाने के लिये  स्वयं ततपर  रहते थे जब वे प्रवचन देते थे  तब 
ऐसे -ऐसे रहस्यों को खोलते थे कि  सुनकर  आश्चर्य से दातो तले उंगली दबा 
लेते  थे स्वामी  जी ने स्वयं भी अपने  जीवन  के  शुरुआती  दिनों  मे  कठोर 
परिश्रम करके  उन  साधनाओ  को किया था एक बार हरिद्वार में कनखल मे 
गंगा नदी के अन्दर लगातार 21  दिन-रात  लगातार  खडे रहकर उर्ध्वगामी 
साधना संपन्न की थी इन 21 दिनों मे पैरो की  खाल  गल  सी  गयी थी और 
मछलियो ने जगह जगह से मांस नोच लिया था  इस  दृस्य को एक सेठ जो 
कि  यात्रा  करने  आया था ,देख रहा था यात्रा के  दौरान  वही  सेठ बद्रीनाथ 
पंहुचा तब सेठ  ने  देखा कि एक साधू बर्फ मे बैठे हुए साधना कर रहा है सेठ
ने पास पहुंचकर  देखा  तो  पाया  कि  यह  तो  वही  साधू है जिसे कुछ दिन 
पहले हरिद्वार मे कनखल की  गंगा  में  खड़े  देखा  था  देखकर  सेठ  आश्चर्य 
से  भर  गया  और  दण्डवत  प्रणाम करके  आशीर्वाद लिया सेठ अपनी यात्रा 
के अगले पड़ाव मे हिमाचल गया  घूमते -घूमते उसने देखा की एक सन्यासी 
एक चट्टान  पर  एक  पैर  पर  खड़े  होकर  तपस्या  कर  रहा है सन्यासी के 
जैसे ही पास पंहुचा देखकर एकदम  आश्चर्यचकित  रह  गया कि यह तो वही 
सन्यासी है  जिसे  मैने  हरिद्वार  ,बद्रीनाथ  और  अब हिमाचल मे  देख  रहा 
हू वह सोचते -सोचते थक गया  कि  एक  सन्यासी  अपने  शरीर को  इतना 
कष्ट देते हुए कैसे  तपस्या  संपन्न  कर  सकता  है तो  कहने  का अर्थ है  कि 
स्वामीजी ने किस प्रकार  अपने  जीवन  को  कठिन  परिश्रम करते हुए और 
अपने  शरीर की  बिल्कुल  भी  परवाह  न  करते  हुए  स्वयं  को  तिल -तिल 
जलाया  था  तब  कही जाकर योग के उन आयामो को छुआ था जो योगियों 
के लिए आज भी  प्रेरणा  के  श्रोत  है  इसके आगे दसो महाविद्याओं को प्राप्त 
करके  उन  श्रेष्ठ  योगियों  में  अपना नाम बनाया जिसे दुनिया योगिराज के  
नाम से  जानती  है  आगे जाकर स्वामीजी  इससे भी उच्चकोटि की तपस्या 
मे संलगन  हुए  और  हिमालय  ही  नहीं  वरन पूरे संसार  मे भी उनके जैसा 
कोई दूसरा तपस्वी नहीं है